कलगी बाजरे की:
प्रकाशन एवं संकलन : यह कविता ‘हरी घास पर क्षण भर’ (१९४९) इस कविता संग्रह में संकलित है| कवि ने कविता के पुराने प्रतीकों को छोड़कर, अपने नये प्रतीक बनाये हैं| अपनी प्रियसी की तुलना पहले चाँद तारों से करनेवाले कवि भी आपने देखे होंगे, लेकिन कवि यहाँ अपनी प्रियसी की तुलना प्रकृति के अगल-अलग उपमानों से करतें हैं| यही इस कविता में कलगी बाजरे की किस रूप में आई हैं यह देखना है|
“हरी बिछली
घास|............................देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच|”
कवि अपनी प्रेमिका को हरी-भरी चिकनी घास कहते है| जो बाजरे की डोलती हुई
कलगी(बाली) कहते है| कवि अपनी प्रेमिका को कहते है कि, अगर मैं तुमें सांझ के समय
आकाश में दिखाई देनेवाली लाल और अकेली चमकने वाली तारा (किरन) अब नहीं कहता| या
शरद ऋतू के भोर (सुबह) के समय कोहरा(पाले) में ढकी हुई कुंमुदनी(एक प्रकार फूल)
नहीं कहता| अभी-अभी ताजा खिली हुई चम्पे की कली यह नहीं कहता| तो ऐसा कदापि नहीं
हैं कि, मेरा दिल(मन) उथला या सूना है या फिर मेरा प्यार मैला(झूठा) है| कवि यहाँ
स्पष्ट करना चाहते है कि, अगर मैंने तुम्हे तारा, कुंमुदनी या चम्पी की कली नहीं
कहता तो मेरा प्यार झूठा है ऐसा नहीं है| इन कलियों की उपमा अपने प्रेमिका को देने
के बाद ही प्यार सच्चा है यह साबित नहीं होता ऐसा कवि यहाँ दर्शाना चाहते है| कवि
आगे कहते है, बल्कि यही सब उपमान अब मैले(पुराने) हो चुके हैं| यहाँ कवि अपने
प्रेमिका का तुलना तारा, चम्पे की कली से नहीं करते है| ये जो उपमान थे अब घिस-घिस
कर पुराने हो चूके हैं| इन प्रतीकों की शक्ति अब नष्ट हो चुकी है|
“कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता
है...........अकेली बाजरे की|”
कवि आगे कहते है कि, जिसतरह अधिक घिसने से बर्तन की चमकाहट निकल जाती है|
उसी तरह इन पुराने उपमानों का बार-बार उपयोग होने से अब ये भी पुराने हो चुके है|
क्योंकि आज तक कवियों व्दारा इन उपमानों का उपयोग बहुत हो चूका है| इसलिए कवि अपनी
प्रेमिका को हरी घास की उपमा देते है| और वह अपनी प्रेमिका को प्रश्न पूछते है,
मगर क्या तुम यह जानना नहीं चाहती? तुम क्या पहचान नहीं पाना चाहती कि, तुम्हारे
सबसे करीब सिर्फ तुम हो, तुम्हारे रूप के निकट तुम ही हो| इसीलिए इन पुराने
उपमानों के साथ तुम्हारी तुलना मैंने(कवि) ने नहीं की है| तुम्हारे इस रूप के जादू
के कारण ही अपने निजी, सहज अनुभव और गहरे बोध से, प्यार से मैं यह कह रहा हूँ|
अपने भीतर के लगाव और चिन्तन से कह रहा हूँ| अगर मैं(कवि) तुम्ह्सें यह कहता हूँ
कि, तुम बिछली हरी घास हो| हवा में लहराती पतले बाजरे की कली हो तुम? यह तुम्हे
देखना है कि, मैं यह कितने प्यार से कह रहा हूँ| आगे कवि ने घास और बाजरे की कली
की तुलना शहरी सभ्यता से कर रही है| आज हम शहरी लोगों ने अपने पाले हुए बगीचे में
जूही के फूलों को लगाया है| या उस जूही के फूलों को उगाया है| उनको यह हरी घास
सृष्टि के विस्तार, समृध्दी (एश्वर्य) संपन्न्ता, शक्ति, सहनशीलता (औदार्य), शोभा
का प्रतिक है और यह एक बिछली हुई घास ही इस संसार के विशालता, सच्चाई प्यार का
प्रतीक है| या शरद ऋतू के संध्या के समय सुने आकाश में अपने जगह पर डोलती हुई यह
बाजरे की कलगी उस जूही के फूलों से भी सुन्दर है| अर्थात, कवि का कहना यह है कि,
शहर वासियों के लिए जूही के कली से भी अधिक विशाल और महत्त्वपूर्ण यही बिछी हुई
घास है| इन दोनों से ही हमारे देश की संस्कृति के बारें में पता चलता है|
कवि आगे कहते है, मैं जब-जब इन्हें देखता हूँ घास और बाजरे की कलगी को तो,
सचमुच संपूर्ण संसार वीरान होते हुए दिखाई देता है| इस संस्कृति या सृष्टि का
सूनापन और भी सिमटा एकत्रित हुआ प्रतीत होने लगता है| और मैं (कवि) उस सृष्टि में
स्वयं को अकेले ही समर्पित कर देता हूँ| कवि कहते है कि, शब्द जादू है| उससे अपने
भावनाओं को अभिव्यक्ति मिलती है| कवि प्रश्न करते है- मगर क्या समर्पण कुछ नहीं
है? समर्पण का कोई मोल नहीं है? सारे सृष्टि के प्रति, सौन्दर्य, संसार के प्रति
किया गया समर्पण कुछ नहीं है? कवि यहाँ स्वयं को संसार सृष्टि के प्रति स्वयं को
समर्पित कर देंते है|
निष्कर्ष :
कवि ने पुराने प्रतीकों, उपमानों को नकारा
है|
कविता में नये प्रतिमानों का अविष्कार|
सृष्टि या संसार के प्रति कवि का समर्पण|
शहरी सभ्यता और ग्रामीण सभ्यता को जोड़ने का
प्रयास
प्रकृति चित्रण के नये अंग का दर्शन|
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