शिवमूर्ति
लेखक – प्रतापनारायण मिश्र
शैली : प्रतीकात्मक
विषय :
ü भारतीय मनीषा का जागरण
ü भारत का शिक्षित वर्ग
ü भारतीय संस्कृति और भारतीय प्रतीकों के प्रति
उदासीनता
ü
सारांश :
१९वी
शताब्दी के अंतिम वर्षों में लिखा गया यह निबन्ध मिश्र का प्रतीकात्मक निबन्ध है|
‘शिवमूर्ति’ अर्थात एक कलाकृति है, जिसे प्रतीक रूप में लेखक ने चित्रित किया है|
शिवमूर्ति के माध्यम से लेखक यह स्पष्ट करना चाहते है कि, मनुष्यों के बीच आपस में
वैर नहीं होना चाहिए| किसी भी आधार पर जैसे धर्म, जाति, वंश के आधार पर| इस निबन्ध
में लेखक ने आस्तिकता का पाठ पढाया है| वे कहते है कि, हमारा मुख्य विषय शिवमूर्ति
है और वह विशेष शैवों के धर्म का आधार है| लेखक उस शैव भाइयों से प्रश्न करते है
कि, आप भगवान गंगाधर के पूजक होकर वैष्णवों से किस बात से व्देष रख सकते है? लेखक
कहना है कि, यहाँ प्रश्न आज भी वर्तमान में भी प्रासंगिक लगता है| क्योंकि धर्म और
ईश्वर के नाम पर आज भी समाज में उन्माद और अराजकता होती है| पहले बात शैव, शाक्त
और वैष्णव की होती थी आज हिन्दू, मुस्लिम, सीख, इसाई की है| इसी व्देष भावना के
चलते आतंकवाद और सांप्रदायिकता का बढ़ावा मिल रहा है और मानवीयता समाप्त हो रही है|
लेखक समन्वय के पक्षधर लगते है| वे अंधी आस्था के विरुध्द में खड़े होते है और अपने
तर्क का पाठ प्रस्तुत करते है| वे कहते है कि, यदि धर्म से अधिक मतवालेपन पर
श्रध्दा हो तो अपने आराध्य देवता भगवान भोलेनाथ को परमवैष्णव एवं गंगाधर कहना छोड़
दीजिए| उनके अनुसार शैव वही हो सकता है जो वैष्णव मात्र को अपना देवता समझे| इससे
शैवों का शाक्तों के साथ विरोध अयोग्य है| लेखक के मतानुसार आस्तिक मात्र को किसी
को व्देष बुध्दि रखना पाप है, क्योंकि सब हमारे जगदीश (भगवान) की ही प्रजा है, सब
हमारे खुदा ही के बंदे हैं| इस नाते सभी हमारे आत्मीय बन्धु हैं| यहाँ लेखक ने विश्वबन्धुत्व
का संदेश दिया है| लेखक पौराणिक दंतकथाओं के आधार पर तर्क प्रस्तुत किये हैं कि,
शैव-वैष्णव में अंतर करना गलत है, एक निम्न है एक उच्च है| दोनों ही भगवान की देन
है|
इस
निबन्ध में लेखक ने पहले मूर्तियों की चर्चा की है, बाद में धातुओं की चर्चा की है
जिनसे मूर्तियों का निर्माण होता है| फिर मूर्तियों के रंगो की चर्चा और फिर
मूर्तियों के आकर की चर्चा की गयी है| अर्थात मूर्तियों के माध्यम से मानव की
उत्पत्ति उसके रहन-सहन, उसकी जन्म-मरण और मानवों में होनेवाला आंतरिक भेदभाव,
दुराव का कारण इसपर प्रकाश डाला गया है| लेखक ने अपने पाठकों को यहाँ संदेश दिया
है कि, “ह्रदय मन्दिर में प्रेम का प्रकाश है तो संसार शिवमय है क्योंकि प्रेम ही
वास्तविक शिवमूर्ति अर्थात कल्याण का रूप है|”
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