महादेवी वर्मा
बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ:
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https://youtu.be/siOm2oTWUlE |
संकलन और प्रकाशन : यह कविता महादेवी वर्मा के ‘नीरजा’ (१९३४) इस काव्य संग्रह में संकलित की गई है| उनके काव्य में उन्होंने अपने परमात्मा रूपी प्रेमी जो अप्रत्यक्ष है| उसको उद्देशित करते हुए कविताएं लिखी है|
“नींद थी मेरी अचल निस्पंद कण-कण में,..................बीन भी हूँ मैं..|”
कवयित्री
महादेवी वर्मा ने इस कविता में आत्मा और परमात्मा के मिलन और प्रेम का वर्णन किया
है| ‘मैं’ रूपी आत्मा अपन परमात्मा की उद्देशित करते हुए कह रही है, मैं तुम्हारी
बीन भी हूँ और तुम्हारी रागिनी भी हूँ| अर्थात, यहाँ एक प्रेमिका अपने प्रेमी से
कह रही हो कि, मैं तुम्हारी जीवन रूपी विना (बाँसुरी) भी हूँ और उस विणा (बाँसुरी)
से निकले हुए संगीत के स्वर (रागिनी) भी मैं ही हूँ| मेरी (कवयित्री, आत्मा) नींद
अचल(स्थिर) थी| पकृति कण-कण में हरकत करनेवाली में ही थी| मुझे पहली अहसास हुआ या
जब मैंने पहली बार इस जगत में प्रवेश किया| तब प्रथम बार इस जीवन रूपी ह्रदय में
हलचल करनेवाली मैं ही हूँ| इस जीवन रूपी प्रलय में मेरा पता मेरे जीवन में पदचिन्ह
से हो गया| मैं शाप भी हूँ जो इस बधन में बंधकर अब वरदान बन गई हूँ| अर्थात दूसरा
अर्थ यह भी स्पष्ट होता है कि, लड़की होना एक वरदान है, किन्तु उसे शाप समझा जाता
है| कूल यानी किनारा भी मैं ही हूँ| उस किनारे के बिना प्रवाहित होने वाली
प्रवाहिनी(नदी) भी हूँ| दूसरा अर्थ यह भी है कि, कूल भी मैं चलाती हूँ किन्तु,
कुलहीन बोलकर मुझे अपमानित भी किया जाता है| यहाँ कवयित्री ने एक स्त्री के जीवन
की विडम्बना को व्यक्त किया है| एक तरफ तो वह कूल को जन्म देती है, दूसरी तरफ वह
जन्म लेने के कारण दुत्कारी भी जाती है| इसीलिए कवयित्री कहती है कि, मैं इस जीवन
को चलानेवाली भी हूँ और उस जीवन से निकली हुई मधुर तान भी मैं हूँ|
“नयन में जिसके जलद वह तृषित चातक हूँ.....................बीन भी हूँ मैं...|”
आगे कवयित्री कहती है, मैं वह चातक हूँ जिसके चकषुओं (नयनों में) बादल
विद्यमान रहता है या जलद ज्ञान धारण करने की क्षमता होती है| जिसके ह्रदय में कोई
दया, प्रेम सहानुभूति नहीं होती है वह मैं दीपक भी हूँ| जिसतरह भौंरें के मन में
फूल के लिए कोई दया नहीं होती क्योंकि, वह निष्ठुर होकर उसे सूंघता है| मैं वह
बेचैन, व्याकुल बुलबुल हूँ, जो अपने ह्रदय में फूल के प्रति प्रेम को छिपाएं हुए
है| जो एक होकर भी शरीर से दूर चलनेवाली, जो निरतर गतिमान रहनेवाली छाया (छाँह,
परछाई) भी मैं ही हूँ| कवयित्री अपने परमात्मा रूपी प्रियतम से कह रही है कि, मैं
तुम्हारे साथ चलनेवाली निरंतर तुम्हारी परछाई हूँ| जो कभी साथ नहीं छोडती| मैं
तुमसें भलेही दूर हूँ, किन्तु अंखड सुहागिनी (सौभाग्यवती) हूँ| आत्मा और परमात्मा
जिसतरह दूर रहकर भी, एक दुसरें के पूरक होते है| वैसे ही ‘मैं’ रूपी आत्मा अपने
प्रियतम को अपने और उसके रिश्तें का आभास करवाकर दे रही है|
“आग हूँ जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के.......................बीन भी हूँ मैं...|”
उक्त पंक्तियों में कवयित्री ने प्रकृति के माध्यम से अपने (आत्मा के) महीम
शक्ति का रहस्य उद्घाटित किया है| जिसमें वह कहती हैं, मैं वह आग हूँ जैसे हिमजल
से जिसतरह ठंडक (शीतल) जल की बूंदें गिरती हैं| वैसे ही मेरे अंग रूपी आग से भी
हिमजल रूपी बिंदु ढुलकते है| मैं शून्य हूँ, फिर भी तुम्हारें (प्रियतम) का
प्रेमपूर्वक इन्तजार कर हूँ| यहाँ आत्मा परमात्मा के मिलन की बात कवयित्री ने की
है| आत्मा अपने प्रियतम के आने रास्तें में पलके बिछाई हुई है| वह प्रतीक्षा कर
रही है| मैं वह रत्न (पुलक) हूँ जो कठिन पत्थर में पला बड़ा है| अर्थात, एक
मौल्यवान रत्न होकर भी अत्यंत कठिनाई भरी परिस्थितियों में अपनी जिन्दगी मैंने
बिताई है| आगे कवयित्री कहती है, मैं वही प्रतिबिम्ब हूँ जो आपके (प्रियतम) के
ह्रदय (उर) में विद्यमान है, बसा हुआ है| मैं आकाश का वह नील घन अर्थात, नीले बादल
भी मैं ही हूँ| और उस वक्त गर्जना करनेवाली दामिनी या बिजली भी मैं ही हूँ| मुझमें
ही सारा संसार समाया हुआ है| और मैं उस संसार में समाई हुई हूँ| यहाँ संसार का
तात्पर्य परमात्मा से है|
“नाश भी हूँ मैं अनंत विकास का क्रम भी...................स्मित की चांदनी भी हूँ|”
यहाँ कवयित्री ने कहाँ है, मैं नाश भी हूँ और
अनंत यानी जिसका कोई अंत न हो ऐसा विकास का क्रम भी मैं ही हूँ| जो समस्त सुखों का
त्याग कर देता है वह त्याग का दिन भी मैं हूँ और जो चरम आसक्त यानी स्वार्थ से
लथपथ होकर पाप करता है अँधेरा भरा जीवन अपनाता है वह अँधेरा, पाप मैं है हूँ| मैं
तार भी हूँ यानी यहाँ दे वहां गतिमान होकर संदेश देनेवाला तन्तु भी मैं ही हूँ|
चोट करने वाला आघात, ध्वनी की गति भी मैं ही हूँ| आगे वह कहती है, मैं वह पात्र भी
हूँ, जिसमें भोजन परोसा जाता है, मैं मधु भी हूँ, जो खाने में स्वाद भर देता है|
और उस मधु को पीनेवाला भ्रमर भी मैं ही हूँ| जो अपने अपने दुखों को भूल जाने की
मिठ्ठी विस्मृति यानी मधुर विस्मरण भी मैं ही हूँ| मैं वह अधर हूँ, जो सबसे निचा
है| उसे कोई भी पाना नहीं चाहता और मैं ही वह मंद-मंद मुस्कान से निकली हुई चाँदनी
भी हूँ| जिसे हर कोई पाने के लिए लालायित रहता है| यहाँ कवयित्री का तात्पर्य है,
सुख और दुःख से है| सुख हर किसी को चाहिए किन्तु दुःख में कोई जीना नहीं चाहता|
यहाँ कवयित्री ने आत्मा के माध्यम से परमात्मा रूपी संसार को उद्देशित करते
हुए कहाँ है कि, इस संसार के कण-कण में ‘मैं’ आत्मा विद्यमान है| उस आत्मा का सबसे
आधार यही परमात्मा रूपी संसार है|
निष्कर्ष :
आत्मा और परमात्मा के रिश्तें को उद्घाटित
किया है|
प्रकृति के असीम शक्ति का दर्शन
रहस्यवाद और दर्शनवाद का चित्रण
‘मैं’ रूपी आत्मा का चरित्र–चित्रण
अव्दैतवाद का दर्शन
प्रकृति के नाना रूपों का चित्रण
अलौकिक भक्ति का दर्शन
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