मुर्दहिया
रचनाकार - डॉ. तुलसीराम
प्रकाशन – २०१०, राजकमल प्रकाशन, प्रा.लि.
दिल्ली|
कथावस्तु/समीक्षा/सारांश
लेखक ने दो खंडो में अपनी आत्मकथा लिखि है| ‘मुर्दहिया’ यह कर्मस्थली
है लेखक के गांव धरमपुर (आजमगढ़) की| लेखक के गांव के सभी रास्तें वही से गुजरते
है| स्कूल हो या दुकान बाजार हो या मंदिर, मजदूरी के लिए हो या शहर, सभी तक जाने
के रास्तें वही से जाते है| वहाँ के लोगों के जीवन से लेकर मृत्यु तक की सारी
गतिविधियाँ मुर्दहिया में ही होती है| लेखक कहते है, यदि वहाँ के किसी ने भी अपनी
आत्मकथा लिखि होती तो उसका शीर्षक भी ‘मुर्दहिया’ ही होता| ‘मुर्दहिया’ सही अर्थ
में लेखक के गाँव के दलित बस्ती की जिंदगी थी| इस आत्मकथा को लेखक ने सात भागों
में विभाजीत किया है|
1.
भुतही परिवारि
पृष्ठभूमि
2.
मुर्दहिया तथा
स्कूली जीवन
3.
अकाल में अंधविश्वास
4.
मुर्दहिया के गिध्द
तथा लोकजीवन
5.
भूतनिया नागिन
6.
चले बुध्द की राह
7.
आजमगढ़ में फाकाकशी
यह एक
दलित आत्मकथा है| लेखक के खानदान में कोई पढ़ा–लिखा नहीं था| इसीलिए मुर्खता
जन्मजात विरासत थी| अंधविश्वासों का बोझ लेकर जीवन जिते थे| लेखक के दादा को
भुतोंने लाठियों से पीट–पीटकर मार डाला था| लेखक के पिता सभी भाईयों में छोटे थे|
दादाजी का नाम जुठन था| दादी का नाम ‘मुसड़ीया’ था| वह सौ वर्ष से भी ज्यादा जिन्दा
रही थी| इसकारण गाँव में तरह–तरह की अफवाएं फैल गई थी| जेसे – दादी ने कौवें का
मांस खाया| इस वजह से वह इतने दिनों तक जीवित रही है| लेखक जब तीन साल के हुए थे|
गाँव में चेचक महामारी की फैल गई थी| पर उसका बहुत बड़ा प्रकोप हुआ| चेचक के कारण
लेखक मरणासन्न स्थिति में आ गये थे| गर में देवी-देवीताओं की पूजा होने लगी| चेचक
का असर इतना था कि, घरवालों आशा ने छोड़ दी थी| जब चेचक का असर कम होने लगा उसका असर
यह हुआ कि, लेखक के पुरे शरीर पर घाव के दाग पड़ गये थे| विशेष रूप से लेखक का
चेहरा दाग से भर गया था| चेचक के कारण लेखक की दाई आँख की रौशनी भी हमेशा के लिए
लुप्त हो गयी| भारत के अंधविश्वास के चलते ऐसे व्यक्ति को ‘अपशकुन’ ‘अशुभ’ माना
जाने लगा| लेखक पंचायत व्दारा भी बड़े विचित्र ढंग से फैसले सुनाए जाते थे| यौन
संबंध तथा डांगर खाने के मामलों यौन संबंध से जुड़ी युवती के पूरे परिवार को
‘कुजाति’ घोषित कर दिया जाता था| कुजाति का अर्थ होता था, उस परिवार बहिष्कार का
देना था हुक्का–पानी बंद कर देना था| लेखक के पिताजी के भाई का नाम मुनेस्सर तथा
तीसरे नग्गर जी जो बड़े गुस्सेल थे| ये दोनों ‘शिवनारायण पंथ’ के धर्मगुरु थे|
शिवनारायण पंथ लोगों की मृत्यु होने पर हिंदुवों की तरह जलाया नही जाता था| बल्कि,
दफनाया जाता था| किसी-किसी को तो गंगानदी में बहाया जाता था| लेखक के घर में भूत-पिशाच
पर बहुत विश्वास करते थे| गाँव में ‘चमरिया माई की विशिष्ठ पूजा होती थी| जिस पूजा
में सूअर खरिदकर बली चड़ाया जाता था| उस सुअर को पकड़ने और मारने की विधि भी लेखक ने
इसमें बतायी है|
लेखक
के गावं में एक युगांतरकारी घटना घटती है| लेखक जब पांच साल के थे तब गाँव एवं
उनके घरवाले ‘आसनसोल और कलकत्ता’ में खानों और मिलों में काम करने जाते थे| कभी
पोस्टकार्ड पर चिट्टीयाँ भेजते थे| इनके दलित बस्ती में कोई पढ़ा-लिखा नहीं था| सो
लेखक को ही सभी चिठ्ठीयाँ पढ़कर सुनानी पड़ती थी| अगर चिठ्ठीयाँ पढ़ने में आनाकानी
करे तो अपमानजनक बातें भी सुननी पडती थी|
लेखक
का मुर्दहिया का स्कूली जीवन किस तरह रहा इसके बारे में आगे लेखक ने बताया है|
स्कूल जाने के लिए भी पिताजी ने अमिका पांडे के पास शुभ मुहूर्त पूछा गया था|
अमिका पांडे ने मंगलवार का दिन, आषाढ़ का महिना निश्चित किया| स्कूल के पहले दिन
लेखक के पिताजी कंधे पर बिठाकर ले गए थे| स्कूल जाने के रास्ते में एक नाला था|
अक्सर बरसात के दिनों में उसे बाढ आ जाती थी| जिसके कारण छात्रों को बहुत कठिनाई
का सामना करना पड़ता था| लेखक के पिता उदारमतवादी थे| सभी छात्रों को अपने कंधे पर
उठाकर नाला पार करवा देते थे| लेखक का स्कूल में पहला दिन था| जब मुंशी रामसूरत लाल
ने पिताजी को जन्मतारीख पूछी तो पिताजी ने चार-पांच साल पहले बरसात में जन्म हुआ
ऐसा कहाँ| मुंशी जी ने बरसात का मतलब १ जुलाई १९४९ लिख दिया और यही तारीख लेखक के
जन्म से जुड़ गई| जन्मदिन का लेखा-जोखा या कुंडली की प्रथा निरक्षरता के चलती थी|
उस समय के अध्यापक ऐसी ही जन्मदिन लिखते थे|
लेखक
की कक्षा में कुल ४३ बच्चे थे| जिनमें तीन लडकियां थी| दलित बच्चों की अलग पंक्ति
बनाई जाती थी| इसी वातावरण में उनकी शिक्षा चालू हो गई| तत्कालीन समय में शैक्षणिक
साधन भी किस तरह के होते हैं| यह भी बताया है| लकड़ी की पटरी होती थी, जिसे लोहार
के पास से चिकना बनाया जाता| मिट्ठी के तेल से जलनवाली ढिबरी, एक घर पर बनायीं गयी
दुधिया का घोल, एक नरकट की कलम, आदि शैक्षणिक सामान होता था| लेकिन कोई किताब उनके
पास नहीं होती थी| शुरू-शुरू में लेखक का पढाई में मन नहीं लगता था| क्योंकि,
स्कूल के मुंशी जी की ‘चमरकिट’ वाली गाली जो भय पैदा कर देती थी| लेकिन लेखक के
पिता जबरदस्ती उन्हें स्कूल छोड़ आते थे| लेखक कहते है, इसलिए कक्षा में अन्य
बच्चों के अलावा थोडी देरी से क, ख, ग, घ. वे लिखना सिख पाये| उन दिनों में
स्कूलों में छुआछुत का प्रचलन बहुत ज्यादा था| सवर्ण-छात्र दलित छात्रों को
मिलते-जुलते नहीं थे| लेकिन संकठासिंह नाम का छात्र अपवाद था| वही लेखक को
पढ़ने-लिखने में मदत करता है| कक्षा दो में जाने के बाद मुंशी जी ने हर बच्चे से दो
रुपए लेना शुरु किया| जो नहीं देता था तो उसे फेल कर दिया जाता था| लेखक को यह बडे
मुश्किल से दो रुपए मिलते थे| परिणामत: कक्षा तीन में लेखक घरवाले दो रुपए देने को
मना कर देते थे| उनका कहना था कि, पैसे देकर तो कोई भी पास हो सकता है| पास होना
है तो अपने दम पर हो जाओ| लेखक को फेल कर दिया जाता है| जब हेडमास्टर बलराम सिंह
को पता चला तो मुंशी जो बहुत डाट पड़ी| इसका एक मात्र कारण था कि, लेखक कक्षा तीन
तक आते–आते पढाई में बहुत तेज हो गए थे| गणित में उनकी विशेष रुची थी| १५ अगस्त को
होनेवाली ‘गणित दौड़’ प्रतियोगिता में हमेशा प्रथम क्रमांक पर आते थे| मुंशी जी इस
दो रुपए की बात हमेशा दोहराते थे|
उन
दिनों में पैसे (सिक्के) होते थे| एक पैसा, अधन्नी, एकन्नी, दोअन्नी, चवन्नी,
अठन्नी और एक रुपया इस तरह के होते थे| चांदी के सिक्के होते थे| दलित लोग उसे ‘बिस्टौरिया’
कहते थे| बुढे लोग उसे बचाकर जमीन में छिपाकर रखते थे| लेखक की दादी के पास भी ‘बिस्टौरिया’
वाले सैंतीस सिक्के थे| न जाने कितने सालों से वे थे| दादी सभी पुराणिक बातें लेखक
को बताती थी| जब भी लेखक के शिक्षा के लिए को जरूरत पड़ी उन्होंने वह सिक्के लेखक
को दिए| लेखक के अलावा किसी को भी उन्ह सिक्कों के बारे में पता नहीं था| लेखक को
वह गिनने के लिए भी देती थी|
लेखक
अपने बचपन के खेतों के बारे में भी कहते है| घर में सबसे ज्यादा प्यार दादी ही
उनसे करती थी| जो कुछ नया खाने के लिए मिलता था| छुपाकर वह लेखक को देती थी| गाँव
में तरह-तरह के लोक-गीत गाते थे| विभिन्न अवसरों पर ऐसे ही लोकगीतों के व्दारा
मनोरंजन होता था| इस आत्मकथा में लोक परंपरा, लोकसंस्कृति, लोकगीतों का वर्णन
अत्यंत बारिकी से किया गया है| गाँव में भुखमरी की स्थिति जब पैदा हो जाती थी| तब
चूहों ने ले गया अनाज ये लोग ढूढ़कर निकालकर लाते थे| चूहों को मारकर, काटकर,
जलाकर, सेंककर और मसाला डालकर रखते| आपातकाल में इससे अपना काम चलाते थे| बरसाती
मछलियां भी गरीबी में इनको राहत देती थी| बरसात के दिनों में लगातार पानी बरसने के
कारण घर की हालत ख़राब हो जाती| और घर में पानी टपकने के कारण जगह-जगह बर्तन रखे
जाते थे| और भरे हुए बर्तन को वो घरसें बाहर फेकतें रखते थे| जाड़े के दिनों में भी
बहुत बुरी हालत रहती थी| लेखक का सारा परिवार संयुक्त परिवार था| कम्बल, रजाई नहीं
होती थी| क्योंकि, कपड़ों की कमी हमेशा रहती थी| लेखक के पिता पूरी धोती नहीं पहनते
थे| उन्हें काटकर दो टुकडे करते और बारी-बारी पहनते थे| सोते समय धान (सुखा) हुआ
शरीर पर लेकर सोते थे|
दलित
बस्ती मैं जब चिठ्ठीयाँ आती तो पहले चौधरी का घर होने के नाते लेखक के घर पर आती
थी| लेखक के गुस्सैल नग्गर चाचा लेखक को वह चिट्ठी ले जाकर, पढ़कर दिखाने को कहते
थे| लेखक सबकी चिट्ठी पढ़कर सुनाते थे| घरवालों को बड़ा गर्व होता था कि, लेखक
चिट्ठी पढ़ता था| गाववालें जाड़े के दिनों में एकसाथ मिलकर आग जलाकर उसके पास बैठते
थे| और राजनीति के बारें में चर्चा होती थी| तत्कालीन दूसरा आम चुनाव था| उसपर
चर्चा होती थी|
गाँव
में तरह-तरह की अफवायें फैलाएँ जाती थी| उल्कापिंडों के सबंध में अफवाएँ होती थी|
महामारी की अफवाएँ होती थी| जिसका संबंध वे भूत-पिशाच से जोड़ते थे| अफवाहों के
कारण मुर्दहिया लोगों के लिए डरावनी बन जाती थी| अगर एक आदमी मरता तो ५० आदमी मरने
की अफवाह उड़ जाती थी, जिसके कारण गाँव का माहौल चिंताजनक बन जाता था| गाँव और लेखक
के घर में पूरी तरह अंधविश्वासी वातावरण था| लेखक का बचपन इसी वातावरण में बिता है|
जहाँ-जहाँ हर घडी, हर दिन अलग-अलग कुछ होता था| बेर का बीज गलती से खा लिया तो पेट
से जाकर वह सीर से होकर बेर का पेड़ निकालने की बातें होती थी| इस कारण बचपन में
लेखक घबरा भी गए थे| क्योंकि, उन्होंने भी गलती से बेर का बीज खाया था| लेखक के
गाँव में अकाल और अंधविश्वास का बोलबाला ज्यादा था| एक अंधविश्वास के अनुसार किसी
लाश के कफ़न में सोना बांधने से वह जल्दी नहीं सड़ेगी| ऐसा ब्राम्हणों के सलाह से
किया जाता था|
अंधविश्वास और अफवाओं के चलते स्कूल जानेवाले बच्चों का बूरा हाल होता था|
बच्चें बहुत डरते थे| इसकारण झुंड बनाकर स्कूल जाते थे| लेखक ने अपने स्कूल का
वातावरण का वर्णन भी किया है| स्कूल के पास कुऑ था, जिसके चबूतरे को भी दलित बच्चें
छू नहीं सकते थे| पानी-पिलाने की विनंती मुंशी जी से की जाती थी| मुंशी जी मिसिरबाबा
को पानी पिलाने को कहते थे| वे पानी पिलाते समय बच्चों के साथ खिलवाड़ करते| पानी
पिलाते कम और गिराते ज्यादा थे| इसकारण बच्चों के शरीर भीग जाते थे| मुंशी जी की
गालियाँ पड़ती भी थी| लेखक ने इसमें दशहरे के मेले में खेले जानेवाले रामलीला का
वर्णन भी किया है| अपना स्कूल का अनुभव बताते हुए लेखक कहते है आजादी के बाद
स्कूली छात्रों के बीच श्रमदान की भी एक क्रिया आवश्यक होती थी| स्कूल के पास ही
एक वैदिक संस्कृत पाठशाला थी| जिसमें सिर्फ पंडित के बच्चें पढ़ते थे| लेखक और उनके
साथी लोग चुपकर उनकी बातें सुनते थे|
चौथी–पांचवी
कक्षा में जाते–जाते लेखक बहुत कुछ सिकते थे| पढाई में भी उनका मन लग रहा था| गणित
में शतप्रतिशत अंक मिलते थे| पूरे कक्षा में लेखक ही उनके शिक्षक के सवाल के जवाब
दे पाते थे| पांचवी कक्षा में हेडमास्टर बदल चुके थे| जिनका नाम परशुराम सिंह था|
वे हमेशा लेखक की तारीफ करते थे| और कहते थे कि, यह चमरा एक दिन में स्कूल का नाम
ऊँचा जरुर करेगा| उस जमाने में डिप्टी साहब का स्कूलों में काफी भय होता था| जिस
वजह से मुंशी जी डरते बहुत थे| डिप्टी साहब सिर पर हैंट पहनेका अर्थ यही होता था
कि, डिप्टी साहब आये है| १९५८–५९ के साल में भयंकर सुखा पड़ गया था| चारों तरफ
हाहाकार मचा हुआ था| अंधविश्वासों का हद से ज्यादा बोलबाला था| भूखमरी के कारण गाँवो
में मृत्यु हो रही थी| जैसे–तैसे गाँववाले अपना चूल्हा जलाने की कोशिश करते थे|
सुखे के कारण गाँवों को अनेक रोगों ने घेर लिया था| जिस वजह से लोग अपनी जाने गवा
रहे थे| अकाल के दिनों में दलितों को बहुत ज्यादा श्रम करना पडता था| कमाई बहुत कम
होती थी| जमीदार दलितों को बुलाकर श्रम करके लेना और दान में बहुत कम देना यह बातें
होती थी| गाँव में कुओं की संख्या भी कम थी| उसमें से भी ब्राम्हणों के पानी पीने
के कुएं आधे थे| उन्हें
दलित छू भी नहीं सकते थे| इसकारण सिंचाई भी नही होती थी| मजदूर वर्ग या नयी ब्याहता
स्त्री अपना रोना लोकगीतों के माध्यम से प्रकट करती थी|
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