भवानीप्रसाद निश्र
गीतफरोश
प्रकाशन एवं सकलन : 'गीतफरोश’ (१९५६) कविता संग्रह में संकलित है| जो दुसरे तारसप्तक संकलित भी है| यह एक प्रयोगशील कविता है। व्यंग्यात्मक स्वर में लिखी गर्इ यह कविता बदलते हुए समय में कवि कर्म में आनेवाले बदलाव की ओर संकेत करती है। कविता के आरंभ में ही स्पष्ट हो जाता है कि बदलते समाज में कविता खरीदी-बेची जानेवाली चीज हो गई है। अत: कवि विवश होकर फेरीवाले की शैली में गीत बेचने की बात करता है। यहाँ गीत फरोश का अर्थ गीत बेचनेवाला होता है|
“जी
हाँ हुजूर, मैं गीत...........जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ|”

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कवि कहते है कि, जी हाँ हुजुर (महाशय) मैं
गीत बेचता हूँ| ग्राहक की मर्जी के अनुसार तरह-तरह के और अलग-अलग किस्म के मैं गीत
बेचता हूँ। कवि यहाँ व्यावसायिक स्वर में कहता है कि, पहले गीत (माल) देख लें, बाद में दाम बता दूंगा। ये गीत निरर्थक नहीं हैं, इन
की उपयोगिता या लाभ भी बताउंगा कि ये किस-किस काम में आते हैं। कवि ने कुछ गीत मौज
मस्ती और पस्ती दोनों ही स्थितियों में लिखे हैं। कवि अपने गीतों की उपयोगिता
गिनाते हुए कहता है कि यह गीत ऐसा है जो सख्त (पुराने से पुराने) सिरदर्द को भी
दूर कर देता है| यह गीत ऐसा है जो पिया(पति) को पास बुला देगा। यानी जिनके पति
(पिया) साथ नहीं है उन्होंने अगर ये गीत गाया तो वे पाने पिया को पास बुला सकती
है| कवि आगे अपने अत्यंत नाटकीय और सहज ढंग से कहते है कि, पहले-पहल जब मैंने गीत
बेचना आरंभ किया तो शर्म आर्इ लेकिन बाद में उसके पीछे-पीछे अकल भी मुझे आ गर्इ।
जहाँ लोगों ने अपना ईमान किसी भौतिक वस्तु की भांति बेच डाला हैं वहां गीतकार गीत
क्यों नहीं बेच सकता? इसमें हैरान होने की कोर्इ बात ही नहीं है, इसलिए सोच समझकर आखिर मैंने गीत बेचना अर्थात अपनी कलम की स्वतंत्राता को
कुछ पैसों के लिए बेचना आरंभ कर दिया।
“यह गीत सुबह का है, गा कर देखें.....................जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ|”
कवि ने आगे अपने गीतों की विविधता के विषय
में कहा है कि, यह गीत सुबह का है| इसको आप गाकर देख सकते हैं। यह गीत गजब का है, इसके व्दारा आप गजब ढाकर देख सकते हैं। कवि ने हर प्रकार की स्थितियों और
मन: स्थितियों में गीत लिखे हैं। एक गीत कवि ने सूनेपन में लिखा था तो दूसरा पूना
शहर में लिखा था। यह गीत ऐसा है, जो पहाड़ों पर भी चढ़ सकता है और दूसरा गीत ऐसा
है जिसे जितना आगे बढ़ाना चाहो वह बढ़ सकता है। यह गीत ऐसे प्रभाव वाला है कि इसे
सुनकर लोगों की भूख-प्यास दूर हो जाती है और यह गीत ऐसा है जो भुवाली नामक तपेदिक
के अस्पताल की हवा जैसा असरदार है। एक अन्य गीत तपेदिक की दवा के समान है। इस
प्रकार कवि सीध्-सादे और अटपटे लगनेवाले सभी प्रकार के गीत बेचता है। और कहते हैं मैं हर तरह के गीत बेचता हूँ|
“जी, और गीत भी हैं, दिखलाता हूँ..................जी हाँ, हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ|”
कवि एक अनुभवी व निपुण व्यवसायीक के रूप में
कविता के ग्राहकों को संबोधित करते हुए कहता है कि, यदि ये गीत पसंद न आ रहे हों
तो और गीत भी है जिन्हें मैं दिखला सकता हूं। यदि आप सुनना चाहें तो मैं इन्हें
गाकर भी दिखला सकता हूँ। इनमें छंद और बिना छंद वाले हर प्रकार के गीत पसंद किए
जाने लायक हैं। इनमें ऐसे गीत भी हैं जो अमर या कभी न मिटने वाले हैं और ऐसे गीत
भी हैं जिनका प्रभाव तुरंत समाप्त हो जाता है। यानी वह तुरंत मर जातें है| कवि
अपने व्यवसाय को चलाने के लिए समझौतावादी दृषिटकोण अपनाता है और हर तरह की मांग को
पूरा करने के लिए तैयार है। अर्थात, स्पष्ट है कि यदि ये गीत पसंद न आ रहे हों तो
इसमें बुरा मानने की कोर्इ बात नहीं है, मेरे पास तो कलम
और दवात (स्याही रखने का पात्र) है, यदि ये गीत अच्छे नहीं
लगे हैं तो नए गीत लिख हूँ क्या? यह स्याही और दवात दोनों भी बहुत व्यस्त है| यदि
नये नहीं चाहिए तो उन गीतों को लिख दूं जो गए अर्थात पुराने काल के हो चुके हैं।
आजकल कवि का धंधा डबल (दुहरा) चल रहा है| कलम से गीत लिखते हैं और फेरीवाले की तरह
कंधे पर रखकर बेचने लगे हैं। कुछ घंटे गीत को लिखने में लगते हैं और कुछ उन्हें
फेरी लगाकर बेचने में लगाते है| लेकिन बेचने में लगी इस देरी के दाम आपसे वसूल
नहीं करूंगा। कवि कहते है, मैं तो नए और पुराने सभी तरह के गीत बेचता हूं।
“जी गीत जन्म का लिखूं, मरण का लिखूँ...........जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ|
कवि ने आगे कहाँ है, उसने जन्म और मरण दोनों
ही अवसरों के लिए गीत लिखे हैं। कभी विजयगीत लिखे हैं और कभी शरण गीत। कोर्इ गीत
रेशम का है, कोर्इ खादी का। कोर्इ पित्त का है,
कोर्इ बादी(रोग, विकार) का। कुछ अन्य डिजाइन के गीत भी हैं। इनमें
इल्म वाला गीत भी है और फिल्मी गीत भी, जो नर्इ और चलती चीज
है। इनमें सोच-सोचकर मर जाने का गीत भी है। दूकान से घर जाने का गीत भी है| कवि
कहतें है इसमें कोई दिल्लगी (हँसने) की कोई बात नहीं है| कवि दिन-रात गीत लिखते
रहते है| इन सब 'रेशमी गीत, शरण गीत,
फिल्मी-गीत आदि गीतों के डिझाइन की सांकेतिकता कवि जीवन की विडंबना
और विवशता को उभारती है।
कवि
का स्वर व्यंग्यात्मक होते हुए भी वस्तुसिथति की गंभीरता की ओर संकेत करता है।
इसलिए तरह-तरह के गीत बन जाते हैं। कभी ये गीत रूठते भी हैं। लेकिन मैं पुन:
उन्हें मना लेता हूँ। ये सारे गीत जो दिखाए हैं इनका ढेर लग गया है, ग्राहक की मर्जी है यदि नहीं खरीदते तो इन्हें हटाए लेता हूँ। बस अब अंतिम
एक गीत और दिखलाता हूँ। या फिर कैसा गीत चाहिए आपको? इसके बारे में आप अपने भीतर
जाकर पूछ आइए। वैसे यह भी सही है कि गीत बेचना पाप है, लेकिन मैं लाचार हूँ| अत:
हारकर गीत बेच रहा हूँ। कवि की लाचारी अंत में उसके व्दारा वस्तु सिथति की विवश
स्थिति की ओर संकेत करती है। इस प्रकार इस भौतिकतावादी समाज में कवि अपनी और अपने
गीतों की स्वतंत्रा चेतना को बेचने के लिए विवश है।
निष्कर्ष:
भौतिकवादी
समाज में कवि अपनी चेतना को बेच रहा है
साहित्य
क्षेत्र की वस्तुस्थिति का वर्णन
कवि
जीवन की विडम्बना और विवशता का चित्रण
कवि/लेखक
का समौझतावादी दृष्टिकोण
साहित्य
व्यवसाय बन चूका है|
साहित्य
और समाज में हो रहे अनिवार्य बदलावों की सूचना दी है|
साहित्य
में विविधता
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