अकाल दर्शन
प्रकाशन एवं संकलन : इस कविता का संकलन ‘संसद से सडक तक’(१९७२) इस कविता संग्रह में किया हुआ है| इस कविता में काल की स्थिति का वर्णन किया हुआ है|“भूख कौन उपजाता हैं.............’जनता के हित में’ स्थानांतरित हो गया|”
प्रश्न जिज्ञासा तभी जागृत होती है, जब
परिस्थिति-परिवेश की विसंगति-विद्रूपता की विकटता चेतना को झकझोरती है| ‘भूख’ का
प्रश्न युग-युगों से उठता रहा है और युगों के अनुरूप ही उसका वैचारिक एवं
व्यावहारिक समाधान होता रहा है| ‘भूख’ एक ऐसा शब्द है जो प्रासंगिक एवं सांकेतिक
सन्दर्भ लिए हुए भौतिक और मानसिक आवश्यकताओं और अपेक्षाओं को समेटे हुए अनेक अर्थ
संकेत देता है| किन्तु यहाँ ‘अकाल-दर्शन’ रचना में कवि धूमिल ने नये युग-सन्दर्भ
में ‘भूख’ की वैचारिक सम्भावनाओं को लेते हुए सामाजिक जीवन में इसके दुष्परिणामों
को अभिव्यंजित करते हुए, शासन-प्रशासन और जिम्मेदार नेता से संवाद के रूप में अपनी
बात खी है| यहाँ ‘चालाक आदमी’ ही उत्पन्न सभी प्रश्न-समस्याओं के लिए जिम्मेदार
ठहराया गया है| फिर भी वह प्रश्नों के सामने से सदा भागता दिखाई देता है| कवि उसी
से प्रश्न करता है –
‘भूख’ को पैदा करनेवाला कौन है? क्या वह
‘इरादा’ जो प्रोसाहित करता है, बुनियाद बनता है अथवा वह ‘घृणा’ जो आँखों पर पट्टी
बांधकर, सब कुछ अनदेखा करके, जीवन की सम्भावना को, घास की सट्टी अर्थात धमियारे
बाजार में तुच्छ कीमत पर छोड़ आती है? बताओं भूख का मूल, कारण कौन है? लेकिन मेरी
इस बात सुनकर वह चालाक आदमी (राजनेता, प्रशासक अथवा धर्म गुरु?) कुछ नहीं बोला| उसने
गलियों, सडकों और घरों में बाढ़ की तरह बहुतायत से भरे हुए बच्चों की और मात्र
इशारा किया और हंसने लगा| इसका तात्पर्य यही है कि, ‘चालाक आदमी’ बच्चों के रूप
में आगे आनेवाले वाली पौध के बहाने अपना उल्लू सीधा करता है और उन्ही बच्चों को
‘भूख’ या अधिक भूख का कारण बताता है|
किन्तु समाज की ‘भूख’ का कारण बच्चों का
होना बताया जाना रचनाकार को नहीं रुचता और वह भूख के जिम्मेदार माने जानेवाले
‘चालाक आदमी’ का हाथ पकड़कर बताता है कि, ‘बच्चों का (अधिक) होना तो बेकारी के कारण
ही होता है| खाली समय में बैठे-बैठे बच्चों की बरकत होते जाना स्वाभाविक ही है| इस
पर वह भी सहमति जताता है| इस बात की बेकारी के समय में जनसंख्या बढती है वे लोग भी
मानते हैं जो तरस खाकर, दया करुना से प्रेरित होकर खाने के लिए रसद या खुराक देते
हैं| वे भी फतवा कसते रहते हैं कि, खाली बैठे-बैठे बच्चे पैदा करते रहते हो| कुछ
लोग यह भी कहते है कि, ‘बच्चे’ बसंत बनाने में खुशहाल भविष्य
निर्मित करने में, समाज को, समाज के लोगों को प्रेरणा देते हैं|
उक्त स्थिति की मानसिकता के प्रति असहमति
प्रकट करते हुए रचनाकार का मन्तव्य है कि बच्चों के संबंध में उक्त प्रकार का
मानना उन सबका मूल है| क्या बच्चे, फल की तरह पेड़ों पर लगते है, जो प्राकृतिक
प्रक्रिया में उग जाते हो| बच्चों के रूप में समाज वृक्ष पर लगे ये फल-फूल तो
हमारे अपराधों, हमारी विचारहीनता के परिणाम है| ऐसा कहने पर भी चालाक आदमी ने कुछ
उत्तर नहीं दिया| वह हंसता रहा, हंसता रहा, हंसता ही रहा| किन्तु उसके हसने में
उसके भेद खुल जाने का रहस्य भी खुल रहा है, उसने फिर चालाकी से, जनता के हित की
बात कहकर आना स्थानांतरण कर लिया अथवा करा लिया, जिससे प्रश्न या भूख के प्रश्न का
उसे सीधे सामना न करना पड़े|
“मैंने खुद को समझाया-यार......................कोई चेतावनी नहीं है|”
तभी कविता प्रवाह में अचानक एक मोड़ आता है
और संवाद बाहर न होकर स्वयं से होने लगता है| विचारधारा ‘विचार’ की अंतर्मुख धार
पर आलोचित होने लगती है| रचनाकार प्रथम पुरुष में, एक वर्चस्व के रूप में स्वयं को
समझता है| अरे मित्र, ‘उस जगह’ अर्थात अँधेरे कुएं या अपराधों की अँधेरी गुंफा की
ओर खाली हाथ अर्थात आत्मरक्षा के लिए बिना कुछ अस्त्र-शस्त्र लिए, जाने में संकोच
करते हो? वह तुम्हें स्वयं किसी का सामना नहीं करना है| वहां सामना करने के लिए
प्रतिपक्ष दिखाई ही नहीं देती है| अर्थात वहां तो अधोमुखी होकर अंध गह्वरों में
गिरना-गिरना है, प्रतिरोध पूर्वक किसी का सामना करना नहीं है|
उक्त विचार-चिन्तन के साथ ही रचनाकार
स्वयं को अपने ही भूचालों का सामना करते हुए पाटा है| अर्थात प्रश्न स्वयं सामने
खड़े होकर उससे ही पूछते है| सवाल जैसे ही सामने उठ खड़े होते हैं, वैसे ही लोक-समाज
व्यवस्था का षड्यंत्र पर्दा रहस्य स्वत: ही उद्घाटित होते दिखाई देता है और तभी
रचनाकार कह उठता है कि, मैंने उस मुहावरे को, उस कथन-स्थिति भेद की समझ लिया है,
जिस उद्देश्य से विधायक-शासक ‘आजादी’ और ‘गांधी का नाम ले ले कर अपना-अपना काम चला
रहे है| पर उक्त दोनों ही नामों से विधायकों की कुर्सी तो बनी रहती है, पर इन
नामों से लोगों से लोगों की न तो भूख ही मिट रही है और न देश का मौसम-माहौल ही बदल
रहा है| उलटे लोग विषमताओं विसंगतियों और अभावों के कारण छटपटा रहे है| वे अरण्य
जीवन की तरह पेड़ों का अवलब्ध लेकर उनके पत्तों और छाल से अपनी उदर पूर्ति कर रहे
है| वे नहीं समझ पा रहे कि वैसा करने से पेड़ स्वयं नंगे हो रहे है| बस, ऐसा करते
हुए आभाव ग्रस्त होकर वे अपनी उदर-पूर्ति करके किसी भी तरह अपना दूभर जीवन भर रहे
है| और मर रहे और अथवा देश समाज की खुशहाली के लिए अपना जीवनदान कर रहे है| उनके
अभावों को दूर करने के लिए, उनकी सुख-सुविधाएं दिलाने के लिए शेष समाज में जो
राजनैतिक प्रयत्न हो रहे हैं| जलसे-जलूसों का आयोजन आदि| उनमें लोग बड़ी ईमानदारी
से अपनी भागीदार निभा रने है| नारे-कोरस गीत गाते हुए वे अपना पूरा समर्थन दे रहे
है| यही पर लेखक वितृष्णा भरे व्यंग्य में कहता है कि जलसे-जलसों वाले लोगों की
मानसिकता तो देखो कि समाज के अकाल, अभावग्रस्त लोगों का समर्थन वे उनके अभावों को
गीतों (सोहर आदि, जिनमें शिशु जन्म के मांगल्य गीत होते है) के रूप में गा-गाकर
अपना राजनैतिक उद्देश्य पूरा कर रहे हैं| किन्तु जो चेहरे झूलुस चुके हैं जित चुके
है| उन पर सावधान होने, जागृत होने के कोई चिन्ह नहीं दिखाई दे रहे| अर्थात
जलसे-जुलसों से अभावग्रस्त लोगों के अभाव किसी प्रकार भी दूर नहीं हो रहे|
“मैंने जब भी उनसे कहा.................उन्हें पानी ने मारा है|”
प्रश्न एवं चिन्तन के प्रवाह की शासन और
प्रशासन के पॉइंट पर केन्द्रित करने पर शासक-प्रशासक और राजनेता को बहुत परेशानी
का सामना करना पड़ता है| भूख से मर रहे और जूझ रहे लोगों को पेट की चिंता से मुक्त
न कर पाने के कारण शासक को ही प्रश्नों के घेरे में खड़ा होना पड़ता है| इसलिए वह इस
प्रश्न को उठाने वाले लो सदा अवरूध्द करना चाहता है| इसी प्रासंगिक मानसिकता को
कवि धूमिल प्रथम पुरुष और तृतीय पुरुष (मैं और वे) के रूप में प्रस्तुत करते हुए
कहते है –
मैंने जब भी उनसे कहाँ कि, देश
का शासन जनता के लिए शासन की समुचित व्यवस्था से ही ठीक प्रकार से चल सकता है|,
तब-तब वे मुझे टोककर चुप करने का प्रयत्न करते रहे है| अर्थात उनकी दृष्टी में भूख
का सवाल अहम महत्व का कभी नहीं रहा| सच तो यह है कि, वे (शासक-विधायक) अपराध के
सही बिंदु पर पहुंचने के प्रयत्न को सदा नाकाम करते रहे है| यही नहीं, उनके पक्ष
के समर्थक ही अधिक मिल जाते है| ऐसे जंगल राज, जिसमें बड़ी ताकत छोटे अस्तित्व को
निगल रही है, खा रही है, जिनको व्यवस्था के भेडियों ने आधा खा-खाकर अत्यंत
दिन-हिन, निरुपाय एवं पराश्रित बना रखा है, वे सब इस जंगल राज की तारीफ करते है|
वे लोग निश्चय करके मान बैठे है कि, ताकतवर बड़े ऊँचे भाग्य से ही, जन्म से ही ऊँचे
है| उनका सामना, करना प्रतिरोध करना सम्भव नहीं है| वे आश्रित लोग पूरी आस्था के
साथ मान बैठे है कि, ‘भारतवर्ष नदियों का देश है’ अर्थात पानी ऊँचाई से नीचाई की
ओर ही बहेगा| हमारी नियति में आश्रित बने रहना ही है| उन लोगों की ऐसी मान्यता ही
उनकी चेतना की हत्या करती रहती है| अर्थात उनको किसी प्रतिरोध के लिए तैयार नहीं
होने देती| उनका ऐसा ‘पानी’ ही उनकी मारने का कारण बना है|
“मगर वे है कि असलियत नहीं समझते..................... हाथों की जूजी है|”
कवि-रचनाकार प्रताड़ित-शोषित-दम्बू लोगों की
मानसिकता के विषय में सोचता है कि बहुत बड़ा शोषित समाजसंगठित होकर प्रतिरोध क्यों
नहीं करता? तो इसका उत्तर यही निकलता है कि, यह पूरा शोषित –प्रताड़ित अशिक्षित
समाज विधायक शासक उस आदमी की नीयत को नहीं समझ पाता| उसी प्रकार जैसे अनाज के भीतर
छिपा हुआ धुन, अनाज की ताकत को अंदर-ही-अंदर खाता रहता है| और अनाज कणों की ताकत
को लेकर, उन्हें खोखला करके अपनी ताकत को बनाये रखता है| उसी प्रकार ‘उस आदमी’ (शासक-विधायक)
की नीयत को, जो अपनी खुराक पुरे समाज से खिचंता हुआ पर पिंडोपजिवी बना रहता है, यह
शोषित दब्बू समाज नहीं समझ पाता| वह ‘चालाक आदमी की ‘गाय’ के नाम पर कभी दुःख भरी
‘हाय’ बोलकर अपनी ताकत को भेष बदलते हुए ज्यों-का-त्यों बनाएं रखता है|
रचनाकार ने बहुत बार उस ‘चालाक आदमी’ के
षड्यंत्र से लोगों को अवगत कराने का प्रयत्न किया है| किन्तु वे अपनी मानसिक
सीमाओं और आस्थाओं के कारण उसके षडयंत्र को नहीं समझ पाते| मैं प्रत्यक्ष उदाहरण
देकर उन्हें समझाता हूँ कि, प्रजातंत्र में तब सबको एक समान फलने-फूलने अथवा जीवन
स्वास्थ अर्जित करने के अवसर मिलते हैं| किन्तु यहाँ हमारे प्रजातंत्र में न जाने
कौन-सा तन्त्र नुस्खा है, जिसमें एक स्वस्थ जवान बना रहता है, और एक बूढा होता
जाता है| उदाहरण के लिए जिस उम्र में मेरी माँ का चेहरा झुरियों की झोली बन गया|
उसी उम्र की मेरे पडोस की महिला के चेहरे पर मेरी प्रेमिका के चेहरे सा लोच-आकर्षण
बना हुआ है| माँ का बेटा और उसकी प्रेमिका के चेहरे जैसा अर्थात जैसा एक व्यक्ति
इस प्रजातांत्रिक माहौल में स्वस्थ आकर्षक बना रहता है, तो दूसरा रोटी-रोजी की
विषम भयंकर परिस्थितियों से संघर्ष करता है| असमय में ही बूढा दिखाई देने लगता है|
उक्त तर्क को सुनकर वे (शासक-विधायक पक्ष
के) लाजवाब होकर सुनते रहते है| अर्थात ऐसे सौदाहरण मजबूत प्रश्न तर्कों का जब
उनके पास कोई उत्तर नहीं बनता, तो वे नेत्रों में विरक्ति भाव भरकर अपनी असमर्थता
पर पश्चाताप और अपनी स्थिति पर संकोच करते दिखाई देते है| उनकी निरुपाय स्थिति
अथवा त्रस्त दशा को देखकर कुछ समझ नहीं पड़ता कि, वे अपने आचारण में ईमानदार रहे है
अथवा ऐसी संकोच भाव दिखाकर अपनी ईमानदारी का ढोंग कर रहे हैं| उनका यह तटस्थता भाव
साक्षी कवि को अस्म्ज्स में डालता है| तभी रचनाकार के चिन्तन में एक नया सोच उभरता
है कि, इस देश में दिखाई देनेवालो ‘एकता’ युध्द के भय अथवा परिणाम में उद्भूत हुई
है और ‘दया’ बहव अकृत्य अभाव के परिणाम से जन्मा है| ‘क्रान्ति’ यह यहाँ कोई
मानसिक विधार स्थिति न होकर मात्र एक शब्द है, जो यहाँ की निष्क्रिय वैचारिकता
में, अनासक्त-असंग-निस्वार्थ चेतना के लोगों के लिए वाणी-विलास का उसी प्रकार
खिलौना मात्र है, अर्थात जैसे बच्चा यह नहीं समझ पाता की उस ‘जूजी’(माऊ, चूजी,
कल्पित डरावना जन्तु) का उपयोग क्या करे, वैसे हु अनासक्त मानसिकता वाले यहाँ के
लोग ‘क्रान्ति’ के समग्र सन्दर्भों का सामाजिक उपयोग नहीं कर पाते|
निष्कर्ष :
भूख की समस्या को चित्रित किया
है|
शोषित और शोषक वर्ग की भिन्नता
का दर्शन|
शासक वर्ग, प्रशासन वर्ग का
व्यवहार
बेकारी के दुष्परिणाम
बौध्दिक वर्ग का विचार-चिन्तन
के प्रयास
‘चालाक आदमी’ (शासक –विधायक,
राजनेता प्रशासक धर्म गुरु) के षडयंत्र
सामाजिक विषमता का स्वरूप
प्रजातंत्र की कमजोरियाँ बताने
का प्रयास किया है|
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