पच्चीस चौका डेढ़ सौ
लेखक : ओमप्रकाश वाल्मीकि
संकलन एवं प्रकाशन : लेखक के ‘सलाम’ इस कहानी संग्रह में यह कहानी
संकलित हैं | जिसका प्रकाशन २००० में हुआ है |
कहानी के पात्र :
१.
सुदीप
२.
सुदीप
के पिता
३.
सुदीप
की माँ
४.
मास्टर
शिवनारायण मिश्रा
५.
फुलसिंह
मास्टर
६.
चौधरी
७.
बस
कंडक्टर
कहानी का विषय :
ü दलित जीवन पर आधारित
ü दलित युवा के जीवन का अतीत
ü शिक्षित और अशिक्षित वर्ग का चित्रण
कहानी की कथावस्तु :
इस
कहानी की शुरुवात सुदीप की पहली तनख्वाह मिलने की ख़ुशी और साथ ही अपने पिता और
परिवार के याद से होती है | इस कहानी का आधी कथावस्तु सुदीप के याद भरी घटनाओं में
आती है | दूसरी आधी सुदीप के घर जाने के बाद की घटनाओं का वर्णन है | प्रत्येक
व्यक्ति का अपना भूतकाल होता है, लेकिन कुछ व्यक्तियों का भूतकाल उसका पीछा नहीं
छोड़ता | वैसे ही सुदीप का भी भूतकाल है | जो वर्तमान में भी उसका पीछा नहीं छोड़
रहा है | आज उसे नौकरी की पहली तनख्वाह मिली है | ख़ुशी भी है, लेकिन यहाँ तक
पहुँचने के लिए उसे न जाने कितने काँटों भरे रास्तों से गुजरना पड़ा | इतने सारे
रूपये उसने पहली बार देखे थे | अभावों में जीने वाला सुदीप किसी तरह अपने जरूरतें
पूरी करता था | एक मामूली सी नौकरी बिह उसके लिए बड़ी अहमियत रखनेवाली थी |
नई
नौकरी में छुट्टियां ज्यादा मिलती नहीं है | उसे भी आसानी से छुट्टी नहीं मिलती
है, वह रविवार को अतिरिक्त काम करता है और उसे दो दिन की छुट्टी मिल जाती है |
छुट्टी लेकर वह अपने माता-पिता के साथ पहली तनख्वाह की ख़ुशी मनाना चाहता था |
इसलिए वह घर की तरफ निकलता है | शहर से गाँव की तरफ जाने के लिए दो-ढाई घंटे लग
जाते थे | इसलिए वह सुबह ही निकलता है | बस अड्डे पर जाकर बस पकड़ता है | बस में
भीड़ बहुत थी | कन्डक्टर किसी यात्री पर बिगड़ रहा था, क्योंकि उसने अपना सामान
रास्तें में रखा था | उस दुबले-पतले आदमी को देखकर सुदीप को अपने पिताजी की याद
आती है | उस आदमी को तरह दयनीय स्वर लेकर सुदीप के पिताजी उसका स्कूल में पहली बार
दाखिला कराने लेकर गए थे | उनके बस्ती के बच्चे स्कूल नहीं जाते थे | सुदीप के
पिताजी के मन में कैसे आया की सुदीप को स्कूल में दाखिल कराया जाए | क्योंकि बस्ती
में पढ़ाई-लिखाई की ओर को ध्यान नहीं देता था |
लेखक
ने सुदीप के पिताजी वर्णन बारीकी से किया है | जैसे मैले-कुचले कपड़े अंग पर थे |
फिर भी बड़े-बड़े डग भरते हुए वे स्कूल की तरफ जाते हैं | एक फुलसिंह मास्टर को
ढूंढकर उन्होंने अपने बेटे का दाखिला करवा दिया था | लेकिन जिस तरह वह मास्टर जी
के सामने याचना कर रहे थे और दयनीय स्वर में बोल रहे थे | वह समय और पिताजी चेहरा
सुदीप भूल नहीं पाया था | क्योंकि वह ख़ुशी के मारे गिडगिड़ाहट से मास्टर को
झुक-झुककर सलाम कर रहे थे |
बस में
यात्रा करते हुए सुदीप को अपने स्कूल के एक के बाद एक दिन याद आने लगे | एक बार
ऐसे ही उसके मास्टर शिवनारायण मिश्रा ने चौथी कक्षा में पन्द्रह तक पहाड़े याद करने
को कहाँ था | सुदीप ने वह पहले ही किया था | इस कारण सुदीप को शाबासी देते हुए
पच्चीस का पहाड़ा याद करने को कहाँ | स्कूल से घर लौटकर वह पच्चीस का पहाड़ा याद कर
रहा था | जब पिताजी घर आये तो सुदीप को पहाड़ा याद करते हुए देखा | सुदीप की पिताजी
को बीस के बाद गिनती नहीं आती थी | लेकिन पच्चीस का पहाड़ा उनके जिन्दगी का अहम
पड़ाव था | जिसे वे अनेक बाद दोहरा चुके थे |
जब
सुदीप ने पच्चीस चौका सौ कहाँ | तो तुरंत पिताजी ने उसे टोका और कहाँ – नहीं
बेटे... पच्चीस चौका डेढ़ सौ | सुदीप ने चौककर पिताजी की तरफ देखा और कहाँ मास्टर
ने तो पच्चीस चौका सौ याद करने को कहाँ और गणित की किताब में भी लिखा हुआ है |
लेकिन सुदीप के पिताजी उसे कहते हैं – मुझे किताब मत दिखा | मुझे पढनी नहीं आती,
क्योंकि उनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर था |
जब
सुदीप को कुछ समझ नहीं आ रहा था, तब पिताजी ने उसे समझया कि “चौधरी बहुत बड़े आदमी
है और तुम्हारा मास्टर भी उनके पैर पड़ता है | उनके पास बहुत किताबें भी है | वे
कैसे गलत बता सकते हैं? मास्टर को कहो की सही-सही पढाया करे |” सुदीप रुआँसा होकर
पिताजी की बात सुनता है | पिताजी ने फिर उसको वह घटना बता दी | जब उन्होंने चौधरी
से पैसे उधार लिए थे |
दस साल
पहले की बात थी, जब सुदीप की माँ बहुत बीमार थी और बचने की कोई उम्मीद नहीं थी |
शहर के डॉक्टर के पास जाकर इलाज किया था | सारा खर्च चौधरी ने दिया था | पूरे सौ
रूपये | जब सुदीप की माँ ठीक हुई तो उसके पिताजी चार महीने के बाद चौधरी के पास
उनकी हवेली में गए | सौ रूपये पर हर महीने पच्चीस रूपये ब्याज बना था | और कुल
मिलाकर हो गया पच्चीस चौका डेढ़ सौ | फिर चौधरी ने अपना समझकर बीस रूपये कम किये थे
| और एक सौ तीस रूपये देंने को कहाँ | हर महीने ब्याज देते रहना | यहाँ सुदीप के
पिताजी को चौधरी ने बीस रूपये कम किये यही बात बहुत बड़ी लग रही थी | वे इस बात को
चौधरी का एहसान मान रहे थे | उनके उपकार के तले दबे हुए थे | उनको गिनती नहीं आती
थी | चौधरी की बात ही सौ आने सत्य है, ऐसा उनका मानना था |
सुदीप
ने पिताजी के कहने अनुसार पहाड़ा दोहराया और दूसरे दिन स्कूल में वहीँ पहाड़ा मास्टर
जी के सामने बोला तो | उसे मास्टर की मार पड़ी और उपर से जातिवाचक गालियाँ भी सुननी
पड़ी | वह दिन सुदीप के जीवन का हमेशा यादगार दिन बन गया | मास्टर सही बोल रहे है
तो फिर पिताजी गलत क्यों बता रहे हैं ? यह बात सुदीप के समझ नहीं आ रही थी | जो
गाँठ सुदीप के मन पर पड़ी थी | वह खुल नहीं पाई | जब भी वह पच्चीस का पहाडा याद
करता उसे वह घटना और पल दोनों याद हो आते |
जब
गतिरोधक के कारण बस को ब्रेक लगा तो सुदीप की तंद्रा लौट आई | वह गाँव में पहुँच
गया था | बस गाँव के किनारे रुक गई थी | सुदीप निचे उतरकर घर की तरफ चल देता है |
गाँव के पश्चिमी छोर पर तीस-चालीस घरों की बस्ती में उनका घर था | दोपहर होने को
आई थी | पिताजी आँगन में पड़ी एक पुरानी चारपाई की रस्सी को कस रहे थे | सुदीप को
आया देखकर उसकी ओर आ जाते है और पूछते हैं – ‘शहर में जी नहीं लगा क्या?’ तब सुदीप
ने अपने जेब पैसे निकालकर अपनी पहली तनख्वाह पिताजी के हाथ में रखकर उनके पाँव छुए
| पिताजी जैसे गदगद हुए | दोनों हाथों से रूपये थामकर माथे पर लगाये और सुदीप की
माँ को आवाज दी | सुदीप की माँ ने वे पैसे अपने आँचल में ले लिए और सुदीप को गले
लगा दिया | उस समय सारा परिवार ख़ुशी से भर उठा था |
सुदीप
सबके चेहरे पर ख़ुशी देख रहा था | पर वह भीतर से अशांत था | उसने अपनी माँ को अपने
पास बिठाया और पिताजी को भी | फिर एक बात कहनी यह कहकर – उसने पच्चीस पच्चीस की
चार ढेरियाँ लगा दी और फिर पिताजी को गिनने को कहाँ | पिताजी के कुछ समझ नहीं आ
रहा था | वे असहाय होकर कहते हैं – मुझे तो बीस के आगे गिनना नहीं आता बेटा | तू
ही गिनके बता दे | फिर सुदीप ने पिताजी को कहाँ – चार जगह का मतलब पच्चीस चौका ...
अब देखते हैं पच्चीस चौका सौ होते या फिर डेढ़ सौ |
पिताजी
अवाक होकर सुदीप का चेहरा देख रहे थे | उनकी आँखों में चौधरी का चेहरा घूम गया था
| तीस-पैंतीस साल पुरानी घटना साकार हो उठी थी | वे यह घटना न जाने कितनी बार
लोगों को सुना चुके थे | आज उस घटना को बिलकुल नए रूप में सुदीप लेकर बैठ गया था |
सुदीप रूपये बोल-बोलकर गिन रहा था | फिर उसने कहाँ – देखो पच्चीस चौका सौ होते हैं
डेढ़ सौ नहीं | पिताजी उसके हाथ से रूपये छीन लेकर गिनने का प्रयास कर रहे थे |
जैसे सुदीप उन्हें मूर्ख बना रहा हो | लेकिन बीस पर जाकर अटक जाते | फिर सुदीप ने
उनकी मदत की | सौ होने पर पिताजी की तरफ देखा | उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था |
उन्होंने फिर गिनना शुरू किया | फिर सुदीप ने गिनकर दिखाए | सुदीप ने हर प्रकार से
उनकी शंका का समाधान किया | आखिर पिताजी को विश्वास हो गया | झूठ-सच सामने था |
उनका
विश्वास चौधरी का जो तीस-पैंतीस साल से गुणगान कर रहे थे, वह एकदम से कांच के समान
टूट गया था | उनके विश्वास को छले जाने की पीड़ा उनकी आखों में वितृष्णा बन गई थी |
‘उन्होंने एक लंबी सांस ली तो जैसे कह रहे हो – ‘कीड़े पड़ेंगे चौधरी.... कोई पानी
देने वाला भी नहीं बचेगा |’
कहानी के निष्कर्ष :
ü एक अनपढ़ पिताजी के विश्वास की कथा
ü दलित को जमीनदारों व्दारा ठगने की कथा |
ü दलित विमर्श की मर्मवेदना
ü अशिक्षा के कारण जीवन में धोखा मिल सकता है
ü आर्थिक शोषण और छलने का चित्रण
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